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गर इक़्तिदार-ए-सुकूँ इक़्तिदार-ए-वहशत है | शाही शायरी
gar eqtidar-e-sukun eqtidar-e-wahshat hai

ग़ज़ल

गर इक़्तिदार-ए-सुकूँ इक़्तिदार-ए-वहशत है

अज़हर हाश्मी

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गर इक़्तिदार-ए-सुकूँ इक़्तिदार-ए-वहशत है
तो फिर दयार-ए-मोहब्बत दयार-ए-वहशत है

दराज़ हो रहे इम्काँ भी अब इबादत के
हिसार-ए-बंदगी गोया हिसार-ए-वहशत है

हर एक शख़्स है तस्वीर-ए-कामराँ ख़ुद में
अना की आब-ए-हवा में ख़ुमार-ए-वहशत है

दवाम पाएगा इक रोज़ हक़ ज़माने में
ये इंतिज़ार नहीं इंतिज़ार-ए-वहशत है

गुलों में हुस्न नहीं और चमन भी आज़ुर्दा
मिरे क़रीब हुवैदा बहार-ए-वहशत है

अभी न पूछिए हाल-ए-ग़म-ए-दिल-ए-'अज़हर'
अभी नज़र में मुक़द्दम ग़ुबार-ए-वहशत है