गर बड़े मर्द हो तो ग़ैर को याँ जा दीजे
उस को कह देखिए कुछ या मुझे उठवा दीजे
कौन ऐसा है जो छेड़े है तुम्हें राह के बीच
मैं समझ लूँगा टुक उस को मुझे बतला दीजे
दिल ओ जान ओ ख़िरद ओ दीं पहले ही दिन दे बैठे
आज हैराँ हूँ कि आता है उसे क्या दीजे
क्या हुआ हाल भला देख तो मुझ बे-दिल का
न कभी दिलबरी कीजे न दिलासा दीजे
दावा-ए-रुस्तमी करते तो हैं पर इक दम में
छीन लूँ तेग़-ओ-सिपर उन की जो फ़रमा दीजे
गुम हुआ है अभी याँ गौहर-ए-दिल ऐ ख़ूबाँ
हाथ लग जावे तुम्हारे तो मुझे पा दीजे
बेवफ़ा दुश्मन-ए-मेहर आफ़त-ए-जाँ संगीं-दिल
हैफ़ 'बेदार' कि ऐसे को दिल अपना दीजे
ग़ज़ल
गर बड़े मर्द हो तो ग़ैर को याँ जा दीजे
मीर मोहम्मदी बेदार