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ग़नीमत है किसी के सर नहीं हूँ | शाही शायरी
ghanimat hai kisi ke sar nahin hun

ग़ज़ल

ग़नीमत है किसी के सर नहीं हूँ

निवेश साहू

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ग़नीमत है किसी के सर नहीं हूँ
अभी तक घर से मैं बे-घर नहीं हूँ

अभी दीवार से गुज़रा तो जाना
मैं अपने जिस्म के अंदर नहीं हूँ

ये अच्छी बात है तुम सामने हो
मैं या'नी ख़्वाब से बाहर नहीं हूँ

मैं चारों ओर से हूँ बंद कमरा
फ़क़त दीवार हूँ मैं दर नहीं हूँ

अगर होता तो ख़ुद को फिर बनाता
मगर अफ़्सोस कूज़ा-गर नहीं हूँ

समुंदर सूख जाने पर मिला हूँ
मगर मलवा हूँ बस गौहर नहीं हूँ

मैं सूखा दश्त हूँ और दश्त ऐसा
किसी भी जानवर का घर नहीं हूँ