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ग़म्ज़ा-ए-चश्म शर्मसार कहाँ | शाही शायरी
ghamza-e-chashm sharmsar kahan

ग़ज़ल

ग़म्ज़ा-ए-चश्म शर्मसार कहाँ

मीर सोज़

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ग़म्ज़ा-ए-चश्म शर्मसार कहाँ
सर तो हाज़िर है तेग़-ए-यार कहाँ

गुल भी करता है चाक अपना जैब
पर गरेबाँ सा तार तार कहाँ

हो ग़ज़ालों को उस से हम-चश्मी
तीखी चितवन कहाँ ख़ुमार कहाँ

अंदलीबों ने गुल को घेर लिया
एक जेवड़ा कहाँ हज़ार कहाँ

एक दिन एक शख़्स ने पूछा
मीर साहब तुम्हारा यार कहाँ

मैं ने उस से कहा कि सुन भाई
अब मुझे उस तलक है बार कहाँ

गाह-गाहे सलाम करता है
पर वो बातें कहाँ वो प्यार कहाँ

ज़िंदगी तक सितम तो सह ले 'सोज़'
फिर तो ये ज़ुल्म बार बार कहाँ