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ग़मों में कुछ कमी या कुछ इज़ाफ़ा कर रहे हैं | शाही शायरी
ghamon mein kuchh kami ya kuchh izafa kar rahe hain

ग़ज़ल

ग़मों में कुछ कमी या कुछ इज़ाफ़ा कर रहे हैं

इरफ़ान सत्तार

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ग़मों में कुछ कमी या कुछ इज़ाफ़ा कर रहे हैं
समझ में कुछ नहीं आता कि हम क्या कर रहे हैं

जो आता है नज़र में उस को ले आते हैं दिल में
नई तरकीब से हम ख़ुद को तन्हा कर रहे हैं

नज़र करते हैं यूँ जैसे बिछड़ने की घड़ी हो
सुख़न करते हैं ऐसे जैसे गिर्या कर रहे हैं

तुम्हारे ही तअ'ल्लुक़ से तो हम हैं इस बदन में
तुम्हारे ही लिए तो ये तमाशा कर रहे हैं

ज़वाल-ए-आमादगी अब गूँजती है धड़कनों में
सो दिल से ख़्वाहिशों का बोझ हल्का कर रहे हैं

सुख़न तुम से हो या अहबाब से या अपने दिल से
यही लगता है हम हर बात बेजा कर रहे हैं

तुम्हारी आरज़ू होने से पहले भी तो हम थे
सो जैसे बन पड़े अब भी गुज़ारा कर रहे हैं

ज़रा पूछे कोई मादूम होते इन दुखों से
हमें किस के भरोसे पर अकेला कर रहे हैं

हमें रोके हुए है पास-ए-नामूस-ए-मोहब्बत
ये मत समझो कि हम दुनिया की पर्वा कर रहे हैं

ब-जुज़-सीना-ख़राशी कुछ नहीं आता है लेकिन
ज़रा देखो तो हम ये काम कैसा कर रहे हैं

हमें इस काम की मुश्किल का अंदाज़ा है साहब
बड़े अर्से से हम भी तर्क-ए-दुनिया कर रहे हैं

जो होगी सुब्ह तो तक़्सीम हो जाएँगे फिर हम
ढली है शाम तो ख़ुद को इकट्ठा कर रहे हैं

जुनूँ से इतना देरीना तअ'ल्लुक़ तोड़ देंगे?
अरे तौबा करें 'इरफ़ान', ये क्या कर रहे हैं