ग़मों में डूबी हुई है हर इक ख़ुशी मेरी
अजीब तौर से गुज़री है ज़िंदगी मेरी
हर एक लम्हा गुज़रता है हादसे की तरह
बस एक दर्द-ए-मुसलसल है ज़िंदगी मेरी
ख़याल-ओ-फ़िक्र ने क्या क्या सनम तराशे थे
तमाम उम्र परस्तिश में कट गई मेरी
मिरा सफ़ीना-ए-हस्ती है और मौज-ए-बला
तमाशा देखती रहती है बेबसी मेरी
हुजूम-ए-दर्द में गुम हो गई मिरी आवाज़
ज़माने वालों ने रूदाद कब सुनी मेरी
मिरी हयात अधूरी रही तुम्हारे बग़ैर
बताओ तुम ने भी महसूस की कमी मेरी
ग़म-ए-हयात की रूदाद थी मगर 'मुमताज़'
समझ लिया उसे लोगों ने शाइ'री मेरी
ग़ज़ल
ग़मों में डूबी हुई है हर इक ख़ुशी मेरी
मुमताज़ मीरज़ा