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ग़मों की धूप में मिलते हैं साएबाँ बन कर | शाही शायरी
ghamon ki dhup mein milte hain saeban ban kar

ग़ज़ल

ग़मों की धूप में मिलते हैं साएबाँ बन कर

अफ़ज़ल इलाहाबादी

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ग़मों की धूप में मिलते हैं साएबाँ बन कर
ज़मीं पे रहते हैं कुछ लोग आसमाँ बन कर

उड़े हैं जो तिरे क़दमों से ख़ाक के ज़र्रे
चमक रहे हैं फ़लक पर वो कहकशाँ बन कर

जिन्हें नसीब हुई है तिरे बदन की नसीम
महक रहे हैं ज़मीं पर वो गुल्सिताँ बन कर

में इज़्तिराब के आलम में रक़्स करता रहा
कभी ग़ुबार की सूरत कभी धुआँ बन कर

मिरी सदाओं को अब तो पनाह मिल जाए
तुझे पुकार रहा हूँ तिरी ज़बाँ बन कर

मैं इस ज़मीन की वुसअ'त पे सैर करता हूँ
फ़लक के चाँद सितारों का राज़-दाँ बन कर

मसर्रतों की फ़ज़ा में सदा वो रहते हैं
जो ग़म के मारों से मिलते हैं मेहरबाँ बन कर

उन्हीं को शान-ए-चमन ये ज़माना कहता है
चमन को लूट रहे हैं जो बाग़बाँ बन कर

मैं हर्फ़ हर्फ़ जिसे पढ़ चुका हूँ ऐ 'अफ़ज़ल'
वरक़ वरक़ पे वो बिखरा है दास्ताँ बन कर