EN اردو
ग़म-ज़दा ज़िंदगी रही न रही | शाही शायरी
gham-zada zindagi rahi na rahi

ग़ज़ल

ग़म-ज़दा ज़िंदगी रही न रही

हरी मेहता

;

ग़म-ज़दा ज़िंदगी रही न रही
ख़ुश रहे हम ख़ुशी रही न रही

ज़िंदगी की हसीन राहों में
छाँव ठंडी कभी रही न रही

चाँद-तारों में ज़िंदगी काटी
आप को याद भी रही न रही

राह-ए-मस्ती में वो चराग़ मिले
जल गए रौशनी रही न रही

जब कोई राह पर लगा ही नहीं
रहबरी रहबरी रही न रही

रह गई बात आप की चलिए
मेरी वक़अत रही रही न रही

दे के उम्मीद पूछते हैं मुझे
दिल में हसरत कोई रही न रही

उम्र गुज़री गुनाह-गारी में
फ़िक्र अंजाम की रही न रही

अपने मरकज़ पे आ गया हूँ 'हरी'
ग़म नहीं ज़िंदगी रही न रही