ग़म तेरा मुझे जाँ से गुज़रने नहीं देता
मरना भी अगर चाहूँ तो मरने नहीं देता
इक बूँद भी पायाब नज़र आती है अब तो
ये डर मुझे दरिया में उतरने नहीं देता
हालात पे मौक़ूफ़ नहीं अपनी तबाही
क़िस्मत का लिखा भी तो सँवरने नहीं देता
फूलों से वो हर सुब्ह उड़ा लेता है सुर्ख़ी
बे-रंग कली को भी निखरने नहीं देता
मरहम जिसे समझा था ज़माने की नज़र ने
भरते हुए ज़ख़्मों को भी भरने नहीं देता
हर राह को वो साँप की मानिंद है घेरे
वो राहगुज़र से भी गुज़रने नहीं देता
'इमरान' मैं इक उम्र से पत्थर की तरह हूँ
ख़ुश्बू की तरह मुझ को बिखरने नहीं देता
ग़ज़ल
ग़म तेरा मुझे जाँ से गुज़रने नहीं देता
आल इमरान