EN اردو
ग़म सहते हैं पर ग़म्ज़ा-ए-बेजा नहीं उठता | शाही शायरी
gham sahte hain par ghamza-e-beja nahin uThta

ग़ज़ल

ग़म सहते हैं पर ग़म्ज़ा-ए-बेजा नहीं उठता

मुनीर शिकोहाबादी

;

ग़म सहते हैं पर ग़म्ज़ा-ए-बेजा नहीं उठता
मरते हैं मगर नाज़-ए-मसीहा नहीं उठता

कब पान रक़ीबों को इनायत नहीं होते
किस रोज़ मिरे क़त्ल का बेड़ा नहीं उठता

बल पड़ते हैं पहोंचे में लचकती है कलाई
नाज़ुक हैं बहुत फूलों का गजरा नहीं उठता

फ़रमाइए इरशाद पहाड़ों को उठा लूँ
पर रश्क का सदमा नहीं उठता नहीं उठता

कूचे में 'मुनीर' उन के मैं बैठा तो वो बोले
है है मिरे दरवाज़े से पहरा नहीं उठता