ग़म रो रो के कहता हूँ कुछ उस से अगर अपना
तो हँस के वो बोले है ''मियाँ फ़िक्र कर अपना''
रोने से तिरे क्या कहें ऐ दीदा-ए-ख़ूँ-बार
ये ख़ाक में मिलता है दिल अपना जिगर अपना
गर बैठते हैं महफ़िल-ए-ख़ूबाँ में हम उस बिन
सर ज़ानू से उठता नहीं दो दो पहर अपना
लाना है तो हमदम उसे ला जल्द कि हम को
अहवाल नज़र आए है नौ-ए-दिगर अपना
बातों से कटे किस की भला राह हमारी
ग़ुर्बत के सिवा कोई नहीं हम-सफ़र अपना
आलम में है घर घर ख़ुशी-ओ-ऐश पर उस बिन
मातम-कदा हम को नज़र आता है घर अपना
या आँखों से इक आन न होता था वो ओझल
या जल्वा दिखाता नहिं अब इक नज़र अपना
हर बात का बेहतर है छुपाना ही कि ये भी
है ऐब करे कोई जो ज़ाहिर हुनर अपना
गर रू-ब-रू उस के किसी ग़म-ख़्वार को चुपके
कुछ हाल सुनाता हूँ मैं बा-चश्म-ए-तर अपना
तो क्या कहूँ कहता है अजब शक्ल से मुझ को
कुछ होंटों ही होंटों में वो मुँह फेर कर अपना
क्या क्या उसे देख आती है 'जुरअत' हमें हसरत
मायूस जो फिर आता है पैग़ाम-बर अपना
ग़ज़ल
ग़म रो रो के कहता हूँ कुछ उस से अगर अपना
जुरअत क़लंदर बख़्श