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ग़म रात-दिन रहे तो ख़ुशी भी कभी रही | शाही शायरी
gham raat-din rahe to KHushi bhi kabhi rahi

ग़ज़ल

ग़म रात-दिन रहे तो ख़ुशी भी कभी रही

सईद अख़्तर

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ग़म रात-दिन रहे तो ख़ुशी भी कभी रही
इक बेवफ़ा से अपनी बड़ी दोस्ती रही

उन से मिलन की शाम घड़ी दो-घड़ी रही
और फिर जो रात आई तो बरसों खड़ी रही

शाम-ए-विसाल-ए-दर्द ने जाते हुए कहा
कल फिर मिलेंगे दोस्त अगर ज़िंदगी रही

बस्ती उजड़ गई भी तो कीकर हरे रहे
दर-बंद हो गए भी तो खिड़की खुली रही

'अख़्तर' अगरचे चारों तरफ़ तेज़ धूप थी
दिल पर ख़याल-ए-यार की शबनम पड़ी रही