ग़म-नसीबों को किसी ने तो पुकारा होगा
इस भरी बज़्म में कोई तो हमारा होगा
आज किस याद से चमकी तिरी चश्म-ए-पुर-नम
जाने ये किस के मुक़द्दर का सितारा होगा
जाने अब हुस्न लुटाएगा कहाँ दौलत-ए-दर्द
जाने अब किस को ग़म-ए-इश्क़ का यारा होगा
तिरे छुपने से छुपेंगी न हमारी यादें
तू जहाँ होगा वहीं ज़िक्र हमारा होगा
यूँ जुदाई तो गवारा थी ये मालूम न था
तुझ से यूँ मिल के बिछड़ना भी गवारा होगा
छोड़ कर आए थे जब शहर-ए-तमन्ना हम लोग
मुद्दतों राह-गुज़ारों ने पुकारा होगा
एक तूफ़ाँ में क़रीब आ गई अपनी मंज़िल
हम समझते थे बहुत दूर किनारा होगा
मुस्कुराता है तो इक आह निकल जाती है
ये 'तबस्सुम' भी कोई दर्द का मारा होगा
ग़ज़ल
ग़म-नसीबों को किसी ने तो पुकारा होगा
सूफ़ी तबस्सुम