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ग़म नहीं जो लुट गए हम आ के मंज़िल के क़रीब | शाही शायरी
gham nahin jo luT gae hum aa ke manzil ke qarib

ग़ज़ल

ग़म नहीं जो लुट गए हम आ के मंज़िल के क़रीब

गुहर खैराबादी

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ग़म नहीं जो लुट गए हम आ के मंज़िल के क़रीब
जाने कितनी कश्तियाँ डूबी हैं साहिल के क़रीब

सरफ़रोशी मेरी कोई रंग दिखला जाएगी
आ गया हूँ ये इरादा ले के क़ातिल के क़रीब

सिर्फ़ दिल की बे-हिसी थी फ़ासला कुछ भी न था
जब किया एहसास पाया आप को दिल के क़रीब

तुम ने जो रक्खा यूँ ही तख़रीब-काराना मिज़ाज
कौन आने देगा तुम को अपनी महफ़िल के क़रीब

रुकते हैं कब रोकने से मौज-ए-तूफ़ाँ के 'गुहर'
हौसले वाले पहुँच जाते हैं साहिल के क़रीब