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ग़म को दिल का क़रार कर लिया जाए | शाही शायरी
gham ko dil ka qarar kar liya jae

ग़ज़ल

ग़म को दिल का क़रार कर लिया जाए

राजेश रेड्डी

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ग़म को दिल का क़रार कर लिया जाए
इस ख़िज़ाँ को बहार कर लिया जाए

फिर जुनूँ को सवार कर लिया जाए
ख़ुद को फिर तार तार कर लिया जाए

ज़िंदगी की कमान से निकले
तीर को आर-पार कर लिया जाए

ख़ुद-कुशी को उधार रखते हुए
मौत का इंतिज़ार कर लिया जाए

तजरबों को भुला के चाहते हैं
तुझ पे फिर ए'तिबार कर लिया जाए

एक ही शख़्स तो जहान में है
ख़ुद को भी गर शुमार कर लिया जाए

सोच कर इस जहाँ के बारे में
ख़ुद को क्यूँ शर्मसार कर लिया जाए

अब तो लगता दुश्मनों को भी
दोस्तों में शुमार कर लिया जाए

अश्क आँखों में फिर उमड आए
इस नदी को भी पार कर लिया जाए

पत्थर औरों पे अब नहीं उठते
ख़ुद को ही संगसार कर लिया जाए

सुन के अपने ज़मीर की आवाज़
ख़ुद को क्यूँ शर्मसार कर लिया जाए