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ग़म की दीवार को मैं ज़ेर-ओ-ज़बर कर न सका | शाही शायरी
gham ki diwar ko main zer-o-zabar kar na saka

ग़ज़ल

ग़म की दीवार को मैं ज़ेर-ओ-ज़बर कर न सका

तारिक़ मतीन

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ग़म की दीवार को मैं ज़ेर-ओ-ज़बर कर न सका
इक यही मा'रका ऐसा था जो सर कर न सका

दिल वो आज़ाद परिंदा है कि जिस को मैं ने
क़ैद करना तो बहुत चाहा मगर कर न सका

दूर इतनी भी न थी मंज़िल-ए-मक़्सूद मगर
यूँ पड़े पाँव में छाले कि सफ़र कर न सका

ज़िंदगी मेरी कटी एक सज़ा के मानिंद
चैन से दुनिया में पल-भर भी बसर कर न सका

आसमाँ पर वो गया क़ल्ब-ए-ज़मीं में उतरा
कौन सा काम है ऐसा जो बशर कर न सका

बात जैसी भी हो तासीर है शर्त-ए-लाज़िम
शे'र वो क्या जो किसी दिल में भी घर कर न सका