ग़म की बे-पनाही में दिल ने हौसला पाया
तीरगी के जंगल में चश्मा-ए-ज़िया पाया
आफ़्ताब का पैकर बन गया बदन अपना
रौशनी में साए का सेहर टूटता पाया
खुल गई जो आँख अपनी वक़्त की सदा सुन कर
अन-गिनत जहानों का दर खुला हुआ पाया
हर क़दम पे साथ अपने ख़ुद को देखते हैं हम
हम-सफ़र कोई अपना अब न दूसरा पाया
मुद्दतों के बा'द उन से इस तरह मिले हैं हम
अजनबी कोई जैसे सूरत-आश्ना पाया
गर्द में हुआ है गुम क़ाफ़िला ज़माने का
आफ़्ताब को अपने साए में पड़ा पाया
ले उड़ी 'नदीम' आख़िर ज़िंदगी की तुग़्यानी
रूह के समुंदर में जिस्म डूबता पाया

ग़ज़ल
ग़म की बे-पनाही में दिल ने हौसला पाया
सलाहुद्दीन नदीम