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ग़म कि था हरीफ़-ए-जाँ अब हरीफ़-ए-जानाँ है | शाही शायरी
gham ki tha harif-e-jaan ab harif-e-jaanan hai

ग़ज़ल

ग़म कि था हरीफ़-ए-जाँ अब हरीफ़-ए-जानाँ है

राज़ मुरादाबादी

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ग़म कि था हरीफ़-ए-जाँ अब हरीफ़-ए-जानाँ है
अब वो ज़ुल्फ़-ए-बरहम है अब वो चश्म-ए-गिर्यां है

वुसअतों में दामन की इन दिनों गरेबाँ है
हम-नफ़स कहीं शायद मौसम-ए-बहाराँ है

रंग-ओ-बू के पर्दे में कौन ये ख़िरामाँ है
हर नफ़स मोअ'त्तर है हर नज़र ग़ज़ल-ख़्वाँ है

बंदगी ये क्या जाने दैर क्या हरम क्या है
हम जहाँ पे हैं वाइ'ज़ कुफ़्र है न ईमाँ है

शुक्रिया मगर नासेह तू ये राज़ क्या समझे
जौर-ए-बरमला उन का इल्तिफ़ात-ए-पिन्हाँ है