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ग़म के बादल हैं ये ढल जाएँगे रफ़्ता रफ़्ता | शाही शायरी
gham ke baadal hain ye Dhal jaenge rafta rafta

ग़ज़ल

ग़म के बादल हैं ये ढल जाएँगे रफ़्ता रफ़्ता

अहमद शाहिद ख़ाँ

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ग़म के बादल हैं ये ढल जाएँगे रफ़्ता रफ़्ता
दीप हर गाम पे जल जाएँगे रफ़्ता रफ़्ता

आबला-पाई ही काफ़ी है तिरा रख़्त-ए-सफ़र
ख़ार ख़ुद गुल में बदल जाएँगे रफ़्ता रफ़्ता

तूर पर आ के ज़रा आप उठाएँ तो नक़ाब
संग-ए-दिल बन के पिघल जाएँगे रफ़्ता रफ़्ता

चश्म-ए-साक़ी से कहाँ पी है कि गिर कर न उठें
जाम से पी है सँभल जाएँगे रफ़्ता रफ़्ता

न सही वस्ल कोई वस्ल का वा'दा तो करे
हम तो इस पर ही बहल जाएँगे रफ़्ता रफ़्ता