ग़म हूँ जो अपने आप में रिसता दिखाई दे
दरिया में डूब कर ही किनारा दिखाई दे
देखो जो ग़ौर से कभी चेहरों की वहशतें
आबादियों में भी तुम्हें सहरा दिखाई दे
सूरज की रौशनी में कभी अपनी सम्त देख
तारीकियों में क्या तुझे साया दिखाई दे
नज़रों में बस गया मिरे दिल में उतर गया
सूरत से अजनबी कि जो अपना दिखाई दे
ख़्वाबों के साहिलों की तरफ़ देखता है कौन
चढ़ता हुआ जो दर्द का दरिया दिखाई दे
इस शहर-ए-बे-चराग़ में चेहरा वो चाँद सा
आए जो अपने सामने कैसा दिखाई दे
कोहराम सा है सीने के अंदर मचा हुआ
ख़ुशियों से बाग़ बाग़ ये चेहरा दिखाई दे
क्या क़हर है जो रौनक़-ए-महफ़िल था ऐ 'नदीम'
वो शख़्स शहर-भर में अकेला दिखाई दे

ग़ज़ल
ग़म हूँ जो अपने आप में रिसता दिखाई दे
सलाहुद्दीन नदीम