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ग़म ही ले दे के मिरी दौलत-ए-बेदार नहीं | शाही शायरी
gham hi le de ke meri daulat-e-bedar nahin

ग़ज़ल

ग़म ही ले दे के मिरी दौलत-ए-बेदार नहीं

मुशफ़िक़ ख़्वाजा

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ग़म ही ले दे के मिरी दौलत-ए-बेदार नहीं
ये ख़ुशी भी है मयस्सर कोई ग़म-ख़्वार नहीं

ख़ुद से भी तोड़ चुका हूँ मैं तअल्लुक़ अपना
अब मिरी राह में हाइल कोई दीवार नहीं

ऐसी सुनसान कभी पहले न थी हिज्र की रात
दूर तक क़ाफ़िला-ए-सुबह के आसार नहीं

बात आसान फ़रावानी-ए-ग़म ने कर दी
अब मुझे शिकवा-ए-ना-कामी-ए-इज़हार नहीं

ज़िंदा रह लूँ किसी सूरत तो बड़ी बात है ये
वर्ना जाँ से तो गुज़रना कोई दुश्वार नहीं

दाम-ए-वहशत से रिहाई नहीं मुमकिन शायद
हूँ असीर अपना भी सिर्फ़ उस का गिरफ़्तार नहीं

क़िस्सा-ए-ग़म भी वही मैं भी वही दिल भी वही
पर वो पहला सा ख़ुलूस-ए-दर-ओ-दीवार नहीं