EN اردو
ग़म-हा-ए-मोहब्बत का असर देख रहा हूँ | शाही शायरी
gham-ha-e-mohabbat ka asar dekh raha hun

ग़ज़ल

ग़म-हा-ए-मोहब्बत का असर देख रहा हूँ

जुंबिश ख़ैराबादी

;

ग़म-हा-ए-मोहब्बत का असर देख रहा हूँ
बिखरे हुए दामन पे गुहर देख रहा हूँ

ऐ हुस्न-ए-रुख़-ए-यार जिधर देख रहा हूँ
इक हस्ब-ए-तख़य्युल ओ नज़र देख रहा हूँ

इक नूर की दुनिया है मिरी शौक़ की मंज़िल
हर ज़र्रे को ख़ुर्शीद-ए-नज़र देख रहा हूँ

तुम और अभी हुस्न के पर्दों को उठाओ
मैं आज हद-ए-ताब-ए-नज़र देख रहा हूँ

हर आह शरर-ख़ेज़ है मुर्ग़ान-ए-क़फ़स की
दामान-ए-फ़ुग़ाँ शो'ला-असर देख रहा हूँ

यूँ काकुल-ओ-रुख़ अपने तसव्वुर में हैं 'जुम्बिश'
इक मरहला-ए-शाम-ओ-सहर देख रहा हूँ