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ग़म-ए-ज़माना नहीं इक अज़ाब है साक़ी | शाही शायरी
gham-e-zamana nahin ek azab hai saqi

ग़ज़ल

ग़म-ए-ज़माना नहीं इक अज़ाब है साक़ी

अख़्तर शीरानी

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ग़म-ए-ज़माना नहीं इक अज़ाब है साक़ी
शराब ला मिरी हालत ख़राब है साक़ी

शबाब के लिए तौबा अज़ाब है साक़ी
शराब ला मुझे पास-ए-शबाब है साक़ी

उठा पियाला कि गुलशन पे फिर बरसने लगी
वो मय कि जिस का क़दह माहताब है साक़ी

निकाल पर्दा-ए-मीना से दुख़्तर-ए-रज़ को
घटा में किस लिए ये माहताब है साक़ी

तू वाइ'ज़ों की न सुन मय-कशों की ख़िदमत कर
गुनह सवाब की ख़ातिर सवाब है साक़ी

ज़माने-भर के ग़मों को है दावत-ए-ग़र्रा
कि एक जाम में सब का जवाब है साक़ी

कलाम जिस का है मेराज 'हाफ़िज़'-ओ-'ख़य्याम'
यही वो 'अख़्तर'-ए-ख़ाना-ख़राब है साक़ी