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ग़म-ए-मोहब्बत में दिल के दाग़ों से रू-कश-ए-लाला-ज़ार हूँ मैं | शाही शायरी
gham-e-mohabbat mein dil ke daghon se ru-kash-e-lala-zar hun main

ग़ज़ल

ग़म-ए-मोहब्बत में दिल के दाग़ों से रू-कश-ए-लाला-ज़ार हूँ मैं

ताजवर नजीबाबादी

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ग़म-ए-मोहब्बत में दिल के दाग़ों से रू-कश-ए-लाला-ज़ार हूँ मैं
फ़ज़ा बहारीं है जिस के जल्वों से वो हरीफ़-ए-बहार हूँ मैं

खटक रहा हूँ हर इक की नज़रों में बच के चलती है मुझ से दुनिया
ज़हे गिराँ-बारी-ए-मोहब्बत कि दोश-हस्ती पे बार हूँ मैं

कहाँ है तू वादा-ए-वफ़ा कर के ओ मिरे भूल जाने वाले
मुझे बचा ले कि पाएमाल-ए-क़यामत-ए-इंतिज़ार हूँ मैं

तिरी मोहब्बत में मेरे चेहरे से है नुमायाँ जलाल तेरा
हूँ तेरे जल्वों में महव ऐसा कि तेरा आईना-दार हूँ मैं

वो हुस्न-ए-बे-इल्तिफ़ात ऐ 'ताजवर' हुआ इल्तिफ़ात-फ़रमा
तो ज़िंदगी अब सुना रही है कि उम्र-ए-बे-एतिबार हूँ मैं