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ग़म-ए-माज़ी ग़म-ए-हाज़िर ग़म-ए-फ़र्दा के सिवा | शाही शायरी
gham-e-mazi gham-e-hazir gham-e-farda ke siwa

ग़ज़ल

ग़म-ए-माज़ी ग़म-ए-हाज़िर ग़म-ए-फ़र्दा के सिवा

अर्श सहबाई

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ग़म-ए-माज़ी ग़म-ए-हाज़िर ग़म-ए-फ़र्दा के सिवा
ज़िंदगी कुछ भी नहीं ख़ून-ए-तमन्ना के सिवा

देखते देखते ही नाव कहाँ डूब गई
किस को मा'लूम है तुग़्यानी-ए-दरिया के सिवा

उन से रूदाद-ए-सितम कहिए तो क्यूँ कर कहिए
जिन को कुछ याद नहीं शिकवा-ए-बेजा के सिवा

मेरे इस हाल-ए-परेशाँ की ख़बर किस को नहीं
सब पे ज़ाहिर है हक़ीक़त ये मसीहा के सिवा

मुश्किलें टूट पड़ीं जब भी हवादिस की तरह
कोई अपना न हुआ इक दिल-ए-तन्हा के सिवा

पाँव में जितने भी छाले थे सभी फूट पड़े
कोई समझा न मिरे दर्द को सहरा के सिवा

'अर्श' कल रात जो महफ़िल में हुए हंगामे
जानता कौन है वो साग़र-ओ-सहबा के सिवा