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ग़म-ए-ख़ामोश जो बा-अश्क-चकाँ रखता हूँ | शाही शायरी
gham-e-KHamosh jo ba-ashk-chakan rakhta hun

ग़ज़ल

ग़म-ए-ख़ामोश जो बा-अश्क-चकाँ रखता हूँ

नुशूर वाहिदी

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ग़म-ए-ख़ामोश जो बा-अश्क-चकाँ रखता हूँ
एक ठहरे हुए दरिया को रवाँ रखता हूँ

इक बदलती हुई दुनिया का समाँ रखता हूँ
उन की जानिब से मोहब्बत का गुमाँ रखता हूँ

शौक़-ए-ताज़ा हो कि हो हसरत-ए-बालीदा कोई
कुछ न कुछ सिलसिला-ए-आह-ओ-फ़ुग़ाँ रखता हूँ

कुछ झिझकती हुई नज़रें हैं ख़रीदार जमील
मैं भी पलकों पे सितारों की दुकाँ रखता हूँ

मुंतज़िर हैं हरम-ओ-दैर के गोशे या'नी
मैं ने जो शम्अ' जलाई है कहाँ रखता हूँ

मस्लहत है कि तिरा तीर न ख़ाली जाए
वर्ना मुट्ठी में इरादों की कमाँ रखता हूँ

ग़ैर के हाथ में आज़ादी-ए-रौशन का चराग़
मैं फ़क़त मुर्दा चराग़ों का धुआँ रखता हूँ

दाग़ हूँ लाला-ए-अक़्वाम-ए-जहाँ के दिल का
मैं बहारों के कलेजे पे ख़िज़ाँ रखता हूँ

तेरी बख़्शी हुई आज़ाद जबीं की सौगंद
एक सज्दा भी ग़ुलामी में गराँ रखता हूँ

कोई मंज़िल हो मुझे आबला-पाई से है काम
कुछ ज़मीं कहती है मैं पाँव जहाँ रखता हूँ

इन्क़लाबात-ओ-अज़ाएम के सँवरने के लिए
एक आईना पस-ए-लफ़्ज़-ओ-बयाँ रखता हूँ

मेरी दुनिया में न का'बा है न बुत-ख़ाना 'नुशूर'
दिल के गोशे में मगर दैर-ए-मुग़ाँ रखता हूँ