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ग़म-ए-जिगर-शिकन ओ दर्द जाँ-सिताँ देखा | शाही शायरी
gham-e-jigar-shikan o dard jaan-sitan dekha

ग़ज़ल

ग़म-ए-जिगर-शिकन ओ दर्द जाँ-सिताँ देखा

मीर मोहम्मदी बेदार

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ग़म-ए-जिगर-शिकन ओ दर्द जाँ-सिताँ देखा
तुम्हारे इश्क़ में क्या क्या न मेहरबाँ देखा

हर एक मजलिस-ए-ख़ूबाँ में दिल-सिताँ देखा
न कोई तुझ सा पर ऐ आफ़त-ए-जहाँ देखा

मैं वो असीर हूँ जिन ने कि दाग़-ए-यास सिवा
न सैर-ए-लाला-सिताँ की न गुल्सिताँ देखा

जिस आँख में न समाती थी बूँद आँसू की
अब उस ने ग़म में तिरे सैल-ए-ख़ूँ रवाँ देखा

न कोहकन ने वो देखा कभी न मजनूँ ने
तुम्हारे इश्क़ में जो हम ने ऐ बुताँ देखा

हज़ार गरचे हैं बीमार तेरी आँखों के
पर उन में कोई भला मुझ सा ना-तवाँ देखा

मैं वो मरीज़ हूँ प्यारे कि जिन ने मुद्दत से
सिवा-ए-दर्द न आराम यक-ज़माँ देखा

किया सवाल मैं 'बेदार' से कि ऐ महजूर
कभी भी तू ने भला वस्ल-ए-दिल-सिताँ देखा

मुफ़ारिक़त ही में क्या उम्र खोई मेरी तरह
कि इश्क़ में दिल-ए-ग़म-गीं न शादमाँ देखा

ये सुन के रोने लगा और ब'अद रोने के
कहा न पूछो जो कुछ मैं ने ऐ मियाँ देखा

फ़िराक़-ए-यार जफ़ा-ए-शमानत-ए-आदा
ग़म-ए-दिल ओ सितम-ए-पंद-ए-नासेहाँ देखा

न पाई ज़र्रा भी उस अश्क-ए-गर्म की तासीर
न एक दम असर-ए-नाला-ओ-फ़ुग़ाँ देखा

जहाँ में वस्ल है सुनता हूँ मुद्दतों से व-लेक
सिवा-ए-नाम न उस का कहीं निशाँ देखा