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ग़म-ए-जहाँ में ग़म-ए-यार ज़म न कर पाया | शाही शायरी
gham-e-jahan mein gham-e-yar zam na kar paya

ग़ज़ल

ग़म-ए-जहाँ में ग़म-ए-यार ज़म न कर पाया

तालिब हुसैन तालिब

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ग़म-ए-जहाँ में ग़म-ए-यार ज़म न कर पाया
हज़ार काम किया ''मैं'' को ''हम'' न कर पाया

मुझे सराब में मंज़िल दिखाई देती थी
सो गिरते पड़ते भी रफ़्तार कम न कर पाया

वो दिन भी देखे हैं मैं ने कि एक लुक़्मा-ए-तर
दहन तक आया सुपुर्द-ए-शिकम न कर पाया

मुझे ये दुख कि बिछड़ने का वक़्त था ही नहीं
उसे मलाल कि इज़हार-ए-ग़म न कर पाया

न पास कोह-ए-निदा था न हाथ में बंदूक़
सो लौह-ए-वक़्त पे दुखड़ा रक़म न कर पाया

किसी का मिलना, बिछड़ना और एक दो बातें
तमाम सिलसिला ज़ेब-ए-क़लम न कर पाया

ख़ुदा का अक्स और उस पर जमाल-ए-यार का अक्स
फ़क़ीर मर गया पानी पे दम न कर पाया