ग़म-ए-जहाँ में ग़म-ए-यार ज़म न कर पाया
हज़ार काम किया ''मैं'' को ''हम'' न कर पाया
मुझे सराब में मंज़िल दिखाई देती थी
सो गिरते पड़ते भी रफ़्तार कम न कर पाया
वो दिन भी देखे हैं मैं ने कि एक लुक़्मा-ए-तर
दहन तक आया सुपुर्द-ए-शिकम न कर पाया
मुझे ये दुख कि बिछड़ने का वक़्त था ही नहीं
उसे मलाल कि इज़हार-ए-ग़म न कर पाया
न पास कोह-ए-निदा था न हाथ में बंदूक़
सो लौह-ए-वक़्त पे दुखड़ा रक़म न कर पाया
किसी का मिलना, बिछड़ना और एक दो बातें
तमाम सिलसिला ज़ेब-ए-क़लम न कर पाया
ख़ुदा का अक्स और उस पर जमाल-ए-यार का अक्स
फ़क़ीर मर गया पानी पे दम न कर पाया
ग़ज़ल
ग़म-ए-जहाँ में ग़म-ए-यार ज़म न कर पाया
तालिब हुसैन तालिब