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ग़म-ए-जानाँ में समो कर ग़म-ए-दौराँ हम ने | शाही शायरी
gham-e-jaanan mein samo kar gham-e-dauran humne

ग़ज़ल

ग़म-ए-जानाँ में समो कर ग़म-ए-दौराँ हम ने

मुख़्तार हाशमी

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ग़म-ए-जानाँ में समो कर ग़म-ए-दौराँ हम ने
दो फ़सानों को दिया एक ही उनवाँ हम ने

ग़म से घबरा के जो की कोशिश-ए-दरमाँ हम ने
और भी काँटों में उलझा लिया दामाँ हम ने

देखें क्या होता है तज्दीद-ए-नशेमन का समाँ
मुंतख़ब की है फिर इक शाख़-ए-गुल्सिताँ हम ने

ग़म से बचने के लिए वज़्अ किए थे जो उसूल
कर दिए नाज़ुकी-ए-वक़्त पे क़ुर्बां हम ने

आज 'मुख़्तार' असीर-ए-ग़म-ए-दौराँ है वो दिल
जिस को समझा था हरीफ़-ए-ग़म-ए-दौराँ हम ने