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ग़म-ए-इंसाँ से जो दिल शो'ला-ब-जाँ होता है | शाही शायरी
gham-e-insan se jo dil shoala-ba-jaan hota hai

ग़ज़ल

ग़म-ए-इंसाँ से जो दिल शो'ला-ब-जाँ होता है

आनंद नारायण मुल्ला

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ग़म-ए-इंसाँ से जो दिल शो'ला-ब-जाँ होता है
वही हर दौर में मेमार-ए-जहाँ होता है

दिल में रहरव के अगर अज़्म-ए-जवाँ होता है
गाम भटका भी तो मंज़िल का निशाँ होता है

होंट सीने से सिवा सोज़-ए-निहाँ होता है
शो'ला देता है तो कुछ और धुआँ होता है

ना'रा-ए-हक़ को दबाते हैं खुली बज़्म में जब
ये किसी गोशा-ए-ज़िंदाँ में जवाँ होता है

कौन पत्थर है गुहर कौन परखने की है बात
देखने ही से ये अंदाज़ा कहाँ होता है

इश्क़ में शुक्र-ओ-शिकायत में कोई फ़र्क़ नहीं
अपना अपना अलग अंदाज़-ए-बयाँ होता है

मैं भी इंसाफ़ का ख़्वाहाँ हूँ मगर ऐ मालिक
तेरी दुनिया में अब इंसाफ़ कहाँ होता है

कौन सा है ये मोहब्बत में मक़ाम ऐ 'मुल्ला'
कल्मा-ए-लुत्फ़ भी अब दिल पे गराँ होता है