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ग़म-ए-हिज्र के गए दिन गुज़र हुआ आख़िर अपना विसाल ही | शाही शायरी
gham-e-hijr ke gae din guzar hua aaKHir apna visal hi

ग़ज़ल

ग़म-ए-हिज्र के गए दिन गुज़र हुआ आख़िर अपना विसाल ही

मिर्ज़ा आसमान जाह अंजुम

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ग़म-ए-हिज्र के गए दिन गुज़र हुआ आख़िर अपना विसाल ही
प ये क्या ग़ज़ब है पए-ख़ुदा तुझे आज तक है मलाल ही

है अनोखा उस का जमाल ही न वो बद्र है न हिलाल ही
नहीं बनती कोई मिसाल ही बलग़ुल-उला-बे-कमालेही

मिरी आह ने ये किया असर कि वो आन कर हुए जल्वा-गर
शब-ए-तार-ए-हिज्र हुई सहर कशफ़ुद्दुजा-बे-जमालेही

है उसी की शान में ला-फ़ता है उसी की शान में हल-अता
है उसी की शान में इन्नमा-हसोनत-जमीओ-ख़िसालेही

मैं सवाल-ए-वस्ल हूँ कर रहा वो ये कहता है कि न मानूँगा
ये अजब तरह का है मख़्मसा कि न हिज्र है न विसाल ही

मुझे किस तरह न ख़याल हो कि न 'अंजुम' उन को मलाल हो
किसी बात का जो सवाल हो नहीं उतनी अपनी मजाल ही