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ग़म-ए-फ़िराक़ भी आख़िर फ़रोग़ पा ही गया | शाही शायरी
gham-e-firaq bhi aaKHir farogh pa hi gaya

ग़ज़ल

ग़म-ए-फ़िराक़ भी आख़िर फ़रोग़ पा ही गया

मुकेश आलम

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ग़म-ए-फ़िराक़ भी आख़िर फ़रोग़ पा ही गया
कि फ़िक्र ढल के फ़क़ीरी में रास आ ही गया

ये राह वो है कि मिटना भी पड़ सके है यहाँ
तू शुक्र कर कि तिरा सिर्फ़ आसरा ही गया

मिली है तर्क-ए-तअ'ल्लुक़ से रब्त-ए-ग़म को बक़ा
कि अब तो मिलने बिछड़ने का मुद्दआ' ही गया

न घर रहा न सुकूँ ना ये ज़िंदगी ही रही
गया है सब न मगर दर्द या-इलाही गया

ये दर्द-ए-इश्क़ है 'आलम' किसी के बस में कहाँ
रहा रहा न रहा न गया तो ना ही गया