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ग़म-ए-दुनिया ग़म-ए-हस्ती ग़म-ए-उल्फ़त ग़म-ए-दिल | शाही शायरी
gham-e-duniya gham-e-hasti gham-e-ulfat gham-e-dil

ग़ज़ल

ग़म-ए-दुनिया ग़म-ए-हस्ती ग़म-ए-उल्फ़त ग़म-ए-दिल

फ़ना बुलंदशहरी

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ग़म-ए-दुनिया ग़म-ए-हस्ती ग़म-ए-उल्फ़त ग़म-ए-दिल
कितने उन्वान मिले हैं मिरे अफ़्साने को

फिर से आ जाएगी देखो तन-ए-बे-जान में जान
आप आवाज़ तो दीजे ज़रा दीवाने को

बे-ख़ुदी में भी तिरा नाम लिए जाते हैं
रोग ये कैसा लगा है तिरे मस्ताने को

तुझ से बस इतनी तलब है तिरे दीवाने की
अपने जल्वों से सजा दे मिरे ग़म-ख़ाने को

शो'ला-ए-दर्द-ए-मोहब्बत कोई भड़काए तो
हम तो तय्यार हैं इस आग में जल जाने को

गर मिरा शौक़-ए-जबीं-साई सलामत है 'फ़ना'
का'बा इक रोज़ बना दूँगा सनम-ख़ाने को