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ग़म-ए-दोस्त को आसाइश-ए-दुनिया से ग़रज़ क्या | शाही शायरी
gham-e-dost ko aasaish-e-duniya se gharaz kya

ग़ज़ल

ग़म-ए-दोस्त को आसाइश-ए-दुनिया से ग़रज़ क्या

शंकर लाल शंकर

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ग़म-ए-दोस्त को आसाइश-ए-दुनिया से ग़रज़ क्या
बीमार-ए-मोहब्बत को मसीहा से ग़रज़ क्या

सर-ता-ब-क़दम बंदा-ए-तस्लीम-ओ-रज़ा हूँ
मुझ आशिक़-ए-सादिक़ को तमन्ना से ग़रज़ क्या

कूचा है तिरा और है दिन-रात का चक्कर
वहशी को तिरे गुलशन-ओ-सहरा से ग़रज़ क्या

वा'दा न करो जल्वा-ए-दीदार दिखाओ
इमरोज़ के मुश्ताक़ को फ़र्दा से ग़रज़ क्या

तुम बाग़ में जाते हो तो गुल खिलते हैं क्या क्या
फूलों को तुम्हारे रुख़-ए-ज़ेबा से ग़रज़ क्या

अक़्ल इतनी कहाँ है कि जो अंजाम को सोचे
दुनिया के तलबगार को उक़्बा से ग़रज़ क्या

अहबाब हैं मय-ख़ाना है पहलू में है मा'शूक़
अब हज़रत-ए-'शंकर' को तमन्ना से ग़रज़ क्या