EN اردو
ग़म-ए-दिल की ज़बाँ अहल-ए-तशद्दुद कम समझते हैं | शाही शायरी
gham-e-dil ki zaban ahl-e-tashaddud kam samajhte hain

ग़ज़ल

ग़म-ए-दिल की ज़बाँ अहल-ए-तशद्दुद कम समझते हैं

तालिब चकवाली

;

ग़म-ए-दिल की ज़बाँ अहल-ए-तशद्दुद कम समझते हैं
न दिल को दिल समझते हैं न ग़म को ग़म समझते हैं

वो कहते हैं कि हँसना है दिल-ए-इंसाँ की कमज़ोरी
नवा-ए-ज़िंदगी को ज़ीस्त का मातम समझते हैं

जुनून-ए-कुश्त-ओ-ख़ूँ को नाम देते हैं शुजाअ'त का
अमावस की शब-ए-तारीक को पूनम समझते हैं

रवादारी को हम समझे हुए हैं दर्द का दरमाँ
मोहब्बत को दिल-ए-मजरूह का मरहम समझते हैं

'महावीर' और 'गौतम' और 'गाँधी' जिस के रहरव थे
तअ'ज्जुब है कि हम उस राह को पुर-ख़म समझते हैं

बनाया है अहिंसा को उसूल-ए-ज़िंदगी हम ने
सुकून-ए-ज़िंदगी का राज़ 'तालिब' हम समझते हैं