ग़म-ए-दिल हीता-ए-तहरीर में आता ही नहीं
जो किनारों में सिमट जाए वो दरिया ही नहीं
ओस की बूंदों में बिखरा हुआ मंज़र जैसे
सब का इस दौर में ये हाल है मेरा ही नहीं
बर्क़ क्यूँ उन को जलाने पे कमर-बस्ता है
मैं तो छाँव में किसी पेड़ की बैठा ही नहीं
इक किरन थाम के मैं धूप-नगर तक पहुँचा
कौन सा अर्श है जिस का कोई ज़ीना ही नहीं
कोई भूला हुआ चेहरा नज़र आए शायद
आइना ग़ौर से तू ने कभी देखा ही नहीं
बोझ लम्हों का हर इक सर पे उठाए गुज़रा
कोई इस शहर में सुस्ताने को ठहरा ही नहीं
साया क्यूँ जल के हुआ ख़ाक तुझे क्या मा'लूम
तू कभी आग के दरियाओं में उतरा ही नहीं
मोती क्या क्या न परे हैं तह-ए-दरिया लेकिन
बर्फ़ लहरों की कोई तोड़ने वाला ही नहीं
इस के पर्दों पे मुनक़्क़श तिरी आवाज़ भी है
ख़ाना-ए-दिल में फ़क़त तेरा सरापा ही नहीं
हाइल-ए-राह थे कितने ही हवा के पर्बत
तो वो बादल कि मिरे शहर से गुज़रा ही नहीं
याद के दाएरे क्यूँ फैलते जाते हैं 'शकेब'
उस ने तालाब में कंकर अभी फेंका ही नहीं
ग़ज़ल
ग़म-ए-दिल हीता-ए-तहरीर में आता ही नहीं
शकेब जलाली