ग़म-ए-दौराँ ने भी सीखे ग़म-ए-जानाँ के चलन
वही सोची हुई चालें वही बे-साख़्ता-पन
वही इक़रार में इंकार के लाखों पहलू
वही होंटों पे तबस्सुम वही अबरू पे शिकन
किस को देखा है कि पिंदार-ए-नज़र के बा-वस्फ़
एक लम्हे के लिए रुक गई दिल की धड़कन
कौन सी फ़स्ल में इस बार मिले हैं तुझ से
कि न परवा-ए-गरेबाँ है न फ़िक्र-ए-दामन
अब तो चुभती है हवा बर्फ़ के मैदानों की
उन दिनों जिस्म के एहसास से जलता था बदन
ऐसी सूनी तो कभी शाम-ए-ग़रीबाँ भी न थी
दिल बुझे जाते हैं ऐ तीरगी-ए-सुब्ह-ए-वतन
ग़ज़ल
ग़म-ए-दौराँ ने भी सीखे ग़म-ए-जानाँ के चलन
मुस्तफ़ा ज़ैदी