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ग़म छेड़ता है साज़-ए-रग-ए-जाँ कभी कभी | शाही शायरी
gham chheDta hai saz-e-rag-e-jaan kabhi kabhi

ग़ज़ल

ग़म छेड़ता है साज़-ए-रग-ए-जाँ कभी कभी

क़ाबिल अजमेरी

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ग़म छेड़ता है साज़-ए-रग-ए-जाँ कभी कभी
होती है काएनात ग़ज़ल-ख़्वाँ कभी कभी

हम ने दिए हैं इश्क़ को तेवर नए नए
उन से भी हो गए हैं गुरेज़ाँ कभी कभी

ऐ दौलत-ए-सुकूँ के तलब-गार देखना
शबनम से जल गया है गुलिस्ताँ कभी कभी

हम बे-कसों की बज़्म में आएगा और कौन
आ बैठती है गर्दिश-ए-दौराँ कभी कभी

कुछ और बढ़ गई है अंधेरों की ज़िंदगी
यूँ भी हुआ है जश्न-ए-चराग़ाँ कभी कभी