ग़म छेड़ता है साज़-ए-रग-ए-जाँ कभी कभी
होती है काएनात ग़ज़ल-ख़्वाँ कभी कभी
हम ने दिए हैं इश्क़ को तेवर नए नए
उन से भी हो गए हैं गुरेज़ाँ कभी कभी
ऐ दौलत-ए-सुकूँ के तलब-गार देखना
शबनम से जल गया है गुलिस्ताँ कभी कभी
हम बे-कसों की बज़्म में आएगा और कौन
आ बैठती है गर्दिश-ए-दौराँ कभी कभी
कुछ और बढ़ गई है अंधेरों की ज़िंदगी
यूँ भी हुआ है जश्न-ए-चराग़ाँ कभी कभी
ग़ज़ल
ग़म छेड़ता है साज़-ए-रग-ए-जाँ कभी कभी
क़ाबिल अजमेरी