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ग़म भी है कैफ़ भी है सोज़ भी है साज़ भी है | शाही शायरी
gham bhi hai kaif bhi hai soz bhi hai saz bhi hai

ग़ज़ल

ग़म भी है कैफ़ भी है सोज़ भी है साज़ भी है

वाहिद प्रेमी

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ग़म भी है कैफ़ भी है सोज़ भी है साज़ भी है
इश्क़ इक ज़िंदा हक़ीक़त भी है इक राज़ भी है

तूर का वाक़िआ' फिर अज़-सर-ए-नौ ताज़ा करें
जल्वा-ए-हुस्न भी है इश्क़ का ए'जाज़ भी है

हुस्न और इश्क़ से ग़ाफ़िल रहे मुमकिन ही नहीं
नग़्मा-ए-दिल में किसी के मिरी आवाज़ भी है

ले उड़ें क्यूँ न क़फ़स सू-ए-गुलिस्ताँ 'वाहिद'
जज़्बा-ए-शौक़ भी है क़ुव्वत-ए-पर्वाज़ भी है