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गलियों में आज़ार बहुत हैं घर में जी घबराता है | शाही शायरी
galiyon mein aazar bahut hain ghar mein ji ghabraata hai

ग़ज़ल

गलियों में आज़ार बहुत हैं घर में जी घबराता है

रईस फ़रोग़

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गलियों में आज़ार बहुत हैं घर में जी घबराता है
हंगामे से सन्नाटे तक अपना हाल तमाशा है

बोझल आँखें कब तक आख़िर नींद के वार बचाएँगी
फिर वही सब कुछ देखना होगा सुब्ह से जो कुछ देखा है

धूप मुसाफ़िर छाँव मुसाफ़िर आए कोई कोई जाए
घर में बैठा सोच रहा हूँ आँगन है या रस्ता है

आधी उम्र के पस-मंज़र में शाना-ब-शाना गाम-ब-गाम
तू है कि तेरी परछाईं है मैं हूँ कि मेरा साया है

हम साहिल की सर्द हवा में ख़्वाबों से उलझे हैं 'फ़रोग़'
और हमारे नाम का दरिया सहरा सहरा बहता है