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गलियाँ झाकीं सड़कें छानीं दिल की वहशत कम न हुई | शाही शायरी
galiyan jhakin saDken chhanin dil ki wahshat kam na hui

ग़ज़ल

गलियाँ झाकीं सड़कें छानीं दिल की वहशत कम न हुई

सज्जाद बाक़र रिज़वी

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गलियाँ झाकीं सड़कें छानीं दिल की वहशत कम न हुई
आँख से कितना लावा उबला तन की हिद्दत कम न हुई

ढब से प्यार किया है हम ने उस के नाम पे चुप न हुए
शहर के इज़्ज़त-दारों में कुछ अपनी इज़्ज़त कम न हुई

मन धन सब क़ुर्बान किया अब सर का सौदा बाक़ी है
हम तो बिके थे औने-पौने प्यार की क़ीमत कम न हुई

जिन ने उजाड़ी दिल की खेती उन की ज़मीनें ख़त्म हुईं
हम तो रईस थे शहर-ए-वफ़ा के अपनी रियासत कम न हुई

अब भी इतना तर-ओ-ताज़ा है जैसे अव्वल दिन का हो
वाह रे अपनी काविश-ए-नाख़ुन ज़ख़्म की लज़्ज़त कम न हुई

'बाक़र' को तुम ख़ूब समझ लो रंजिश है ये दिखावे की
यूँ तुम से बे-ज़ार फिरे है दिल से चाहत कम न हुई