गली से तेरी जो टुक हो के आदमी निकले
तो उस के साया से झट बन के इक परी निकले
ख़याल में तिरे चेहरे की मर गया हो जो शख़्स
तो उस की ख़ाक से सोने की आरसी निकले
बईद शान से आशिक़ के आह भरनी थी
वली वो क्या करे जब उस की जान ही निकले
किसी के होश को कह दो अगर चला चाहे
तो अपने घर से कमर बाँध कर अभी निकले
निशान-ए-आह लिए छाँव छाँव तारों के
चलेगी फ़ौज-ए-सरिश्क आज चाँदनी निकले
कजी तबीअत-ए-कज-फ़हम से हो तब मुंफ़क
किसी दवा से दुम-ए-सग के गर कजी निकले
हज़ार शुक्र कि 'इंशा' किसी की महफ़िल में
ख़फ़ा से आए थे पर हो हँसी-ख़ुशी निकले
ग़ज़ल
गली से तेरी जो टुक हो के आदमी निकले
इंशा अल्लाह ख़ान