गली से अपनी उठाता है वो बहाने से 
मैं बे-ख़बर रहूँ दुनिया के आने जाने से 
कभी कभी तो ग़नीमत है याद रफ़्ता की 
बिठा न रोज़ लगा के उसे सिरहाने से 
अजीब शख़्स था मैं भी भुला नहीं पाया 
किया न उस ने भी इंकार याद आने से 
उठा रखी है किसी ने कमान सूरज की 
गिरा रहा है मिरे रात दिन निशाने से 
कोई सबब तो है ऐसा कि एक उम्र से हैं 
ज़माना मुझ से ख़फ़ा और मैं ज़माने से
        ग़ज़ल
गली से अपनी उठाता है वो बहाने से
एजाज़ गुल

