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गली में बख़्त के उन का भी कुछ क़िस्सा निकल आया | शाही शायरी
gali mein baKHt ke un ka bhi kuchh qissa nikal aaya

ग़ज़ल

गली में बख़्त के उन का भी कुछ क़िस्सा निकल आया

नसीम देहलवी

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गली में बख़्त के उन का भी कुछ क़िस्सा निकल आया
हुई थी सुल्ह किस मुश्किल से फिर झगड़ा निकल आया

मैं अपने शोर के सदक़े कि देखा आज तो उस को
भरा ग़ुस्से में घर से शोख़ बे-परवा निकल आया

नदामत जो हुई दें गालियाँ अफ़्साना-गोयोंं को
वो सुनते थे कहानी ज़िक्र कुछ मेरा निकल आया

किसी का घर नहीं ये तो गली है सोच ओ ज़ालिम
घर उक्ता किस लिए है भूल कर इस जा निकल आया

मिरी तक़दीर बदली ज़ोफ़ से आवाज़ क्या बदली
वो अपने दिल में दुश्मन की सदा समझा निकल आया

जो सच पूछो तो सदक़े में तुम्हारे अक्स आरिज़ के
कँवल फूले दिलों के रंग ग़ुंचों का निकल आया

'नसीम' उन को जो अपना जज़्ब-ए-ख़ातिर इस तरफ़ लाया
गले मिल मिल के रोए हौसला दिल का निकल आया