गली गली की ठोकर खाई कब से ख़्वार ओ परेशाँ हैं
याँ अपना ही होश नहीं है किस को चाह के अरमाँ हैं
फ़ुर्सत हो तो आ के देखो हम आवारा-गर्दों को
कितने ग़ुबार हैं इस दामन में कितने दिल में तूफ़ाँ हैं
सब ही उन का अदब करते हैं चाहने वाला कोई नहीं
टोका इक गुस्ताख़ को लेकिन अब वो ख़ुद ही पशेमाँ हैं
सर जो झुका उस शोख़ के आगे और कहीं फिर झुक न सका
मस्लक-ए-मेहर-ओ-वफ़ा में वाइज़ हम काफ़िर भी मुसलमाँ हैं
कुछ को मुदावा करना होगा इस आशुफ़्ता-मिज़ाजी का
ऐ ग़म-ए-जानाँ! अपने पराए सब ही तुझ से नालाँ हैं
वादी ओ सहरा छोड़ के जब से तेरे शहर में आन बसे
जंगल जंगल ढूँडते फिरते हम को सारे ग़ज़ालाँ हैं
अहल-ए-ज़माना को बस मेरी इक रुस्वाई याद रही
वर्ना मेरी वफ़ा के जाने कितने और भी उनवाँ हैं
हम ने अपनी ओर से ख़ूबाँ कब तुम को बद-नाम किया
तुम ने जो जो दाग़ दिए हैं वो छाती पे नुमायाँ हैं
ख़ैर से अब के अहल-ए-सितम को दीवानों से काम पड़ा
देखें कितनी ज़ंजीरें हैं देखें कितने ज़िंदाँ हैं
जो पामाल-ए-ख़िज़ाँ हैं इक दिन ख़ाक-ए-चमन से उट्ठेंगे
उन का हश्र न जाने क्या हो जो मक़्तूल-ए-बहाराँ हैं
डर न रहा मौज-ए-बला का रुख़ भी फिरा दुनिया की हवा का
रोना क्या है दुख सागर का उस के हम पर एहसाँ हैं
इक इक बूँद जली है लहू की तब जा कर ये रात कटी
तेरे लिए ऐ सुब्ह-ए-तरब हम कब से चाक-गरेबाँ हैं
'मीर' का तर्ज़ अपनाया सब ने लेकिन ये अंदाज़ कहाँ
'आज़मी'-साहिब आप की ग़ज़लें सुन सुन कर सब हैराँ हैं
ग़ज़ल
गली गली की ठोकर खाई कब से ख़्वार ओ परेशाँ हैं
ख़लील-उर-रहमान आज़मी