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गले लिपटे हैं वो बिजली के डर से | शाही शायरी
gale lipTe hain wo bijli ke Dar se

ग़ज़ल

गले लिपटे हैं वो बिजली के डर से

शाद लखनवी

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गले लिपटे हैं वो बिजली के डर से
इलाही ये घटा दो दिन तो बरसे

न पूछो हसरत-ए-तिश्ना-दहानी
वो मुस्तसक़ी हूँ जो पानी को तरसे

लगा के ठट है हर सूना मुरादी
तमन्ना-ए-दिली निकले किधर से

तह-ओ-बाला अगर करना है मंज़ूर
करो नीची निगाहें बाम पर से

मिलेगा ख़ाक बुत-ख़ाने में जा कर
बरहमन और कुछ पूजेंगे घर से

जो सो जाते हैं घड़्याली शब-ए-वस्ल
मिरे ख़ुद कान बजते हैं गजर से

मिरी गर्दन ये तेग़ अपनी लगा देख
नहीं फ़र्क़ इक सर-ए-मू हाथ भर से

मिलेंगे मंज़िल-ए-अव्वल नकीरें
धड़कता दिल है क़ज़्ज़ाक़ों के डर से

वो दामन-दर हूँ तुर्बत पर मिरी 'शाद'
सहाब-ए-बे-कसी फट फट के बरसे