गले लगाए रहा सब का ध्यान था इतना
गई रुतों का शजर मेहरबान था इतना
न जाने कितने समुंदर उतर गए होंगे
किसी के पाँव का गहरा निशान था इतना
ख़लाओं में हद-ए-फ़ासिल को खींचने वालो
ज़मीं से दूर कभी आसमान था इतना
खड़ा है सामने बन कर ख़ुलूस का पैकर
जो शख़्स देखने में बद-ज़बान था इतना
बदन से रूह निकलने के ब'अद लौट आई
वो मर के भी न मिरा सख़्त-जान था इतना
वो अपने क़द को बढ़ा कर भी छू नहीं पाए
झुका हुआ ये तिरा साएबान था इतना
कोई चराग़-ए-सहर तक न चल सका ऐ 'शाद'
गली के मोड़ पे ख़ूनी मकान था इतना
ग़ज़ल
गले लगाए रहा सब का ध्यान था इतना
शाद शाद नूही