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ग़लत की हिज्र में हासिल मुझे क़रार नहीं | शाही शायरी
ghalat ki hijr mein hasil mujhe qarar nahin

ग़ज़ल

ग़लत की हिज्र में हासिल मुझे क़रार नहीं

तिलोकचंद महरूम

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ग़लत की हिज्र में हासिल मुझे क़रार नहीं
असीर-ए-यास हूँ पाबंद-ए-इंतिज़ार नहीं

है उन के अहद-ए-वफ़ा से मुनासिबत दिल को
उसे क़याम नहीं है इसे क़रार नहीं

यहाँ तो ज़ब्त-ए-जुनूँ पर न कर मुझे मजबूर
फ़ज़ा-ए-दश्त है ऐ अक़्ल बज़्म-ए-यार नहीं

क़फ़स में डालेगा किस किस को आख़िर ऐ सय्याद
असीर-ए-दाम-ए-वफ़ा सौ नहीं हज़ार नहीं

जहाँ में बुलबुल-ए-बाग़-ए-ख़िज़ाँ-नसीब हूँ मैं
मिरी नवाओं में रंगीनी-ए-बहार नहीं