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ग़लत है दिल पे क़ब्ज़ा क्या करेगी बे-ख़ुदी मेरी | शाही शायरी
ghalat hai dil pe qabza kya karegi be-KHudi meri

ग़ज़ल

ग़लत है दिल पे क़ब्ज़ा क्या करेगी बे-ख़ुदी मेरी

अज़ीज़ लखनवी

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ग़लत है दिल पे क़ब्ज़ा क्या करेगी बे-ख़ुदी मेरी
ये जिंस-ए-मुश्तरक है जो कभी उन की कभी मेरी

हिजाब उठते चले जाते हैं और मैं बढ़ता जाता हूँ
कहाँ तक मुझ को ले जाती है देखूँ बे-ख़ुदी मेरी

तवहहुम था मुझे नक़्श-ए-दुई किस तरह मिटता है
नक़ाब-ए-रुख़ उलट कर इस ने सूरत खींच दी मेरी

इधर भी उड़ के आ ख़ाकिस्तर-ए-दिल मुंतज़िर मैं हूँ
लगा लूँ तुझ को आँखों से तू ही है ज़िंदगी मेरी

'अज़ीज़' इक दिन मुझे ये राज़दारी ख़त्म कर देगी
किसी ने बात इधर की और रंगत उड़ गई मेरी