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ग़ैरों को भला समझे और मुझ को बुरा जाना | शाही शायरी
ghairon ko bhala samjhe aur mujhko bura jaana

ग़ज़ल

ग़ैरों को भला समझे और मुझ को बुरा जाना

मीर मेहदी मजरूह

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ग़ैरों को भला समझे और मुझ को बुरा जाना
समझे भी तो क्या समझे जाना भी तो क्या जाना

इक उम्र के दुख पाए सोते हैं फ़राग़त से
ऐ ग़लग़ला-ए-महशर हम को न जगा जाना

माँगूँ तो सही बोसा पर क्या है इलाज इस का
याँ होंट का हिल जाना वाँ बात का पा जाना

गो उम्र बसर उस की तहक़ीक़ में की तो भी
माहिय्यत-ए-अस्ली को अपनी न ज़रा जाना

क्या यार की बद-ख़़ूई क्या ग़ैर की बद-ख़्वाही
सरमाया-ए-सद-आफ़त है दिल ही का आ जाना

कुछ अर्ज़-ए-तमन्ना में शिकवा न सितम का था
मैं ने तो कहा क्या था और आप ने क्या जाना

इक शब न उसे लाए कुछ रंग न दिखलाए
इक शोर-ए-क़यामत ही नालों ने उठा जाना

चिलमन का उलट जाना ज़ाहिर का बहाना है
उन को तो बहर-सूरत इक जल्वा दिखा जाना

है हक़ ब-तरफ़ उस के चाहे सौ सितम कर ले
उस ने दिल-ए-आशिक़ को मजबूर-ए-वफ़ा जाना

अंजाम हुआ अपना आग़ाज़-ए-मोहब्बत में
इस शग़्ल को जाँ-फ़रसा ऐसा तो न था जाना

'मजरूह' हुए माइल किस आफ़त-ए-दौराँ पर
ऐ हज़रत-ए-मन तुम ने दिल भी न लगा जाना